मेरी पहली हिंदी कविता
दर्पण
सूनेपन के कोलाहल में
शब्दों के उस हालाहल में,
ढूंढ रहा हूँ सुर को लय को
कटुता में उलझे प्रणय को.
आंख मूंद कर देख रहा हूँ
बनते मिटते चित्रों को,
हृदय पटल पर आते जाते
परिजन और मित्रों को.
जीवन के उस कोहरेपन में
जो भी सोचूं सपना सा है,
रिश्तों
के कच्चे धागों में
किसको बोलूं अपना सा है.
यादों की भूलभुलैइयां है
या कोई जमघट सा है,
नियति की लिखी कहानी में
हर पृष्ठ नटखट सा है.
मरू राहों पर तपते पाँव
मातान्चल की ठंडी छाओं,
जीवन के इस अग्निपथ पर
तात साथ बरगद सा है.
पीड़ाओं
के ताने थे कुछ
कुछ आनन्द के बाने थे,
संघर्षों की चादर का रंग
जान पड़ा कुछ मुझ सा है
दर्पण में दर्शन को ढूँढा
दर्शन में दर्पण को ढूँढा,
समझ ना पाया मर्मों को जो
ये मेरा मन कैसा सा है.
No comments:
Post a Comment